71वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर गणतंत्र के सामने कुछ उभरती हुई चुनौतियों का अहसास देश के अन्दर हो रहा है। यह भावना धीरे-धीरे घर करती जा रही है कि संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्ता शनै-शनै कम हो रही है और उन्हें कमजोर किया जा रहा है। विपक्षी दलों के मन में यह शंकायें उमड़-घुमड़ रही हैं कि संविधान के साथ भी छेड़छाड़ कुछ मामलों में की जा रही है और आगे भी की जा सकती हैलोकतंत्र की मजबत बनियाद और उसकी आत्मा संविधान होता है और जिस प्रकार विभिन्न धर्मावलंबियों के लिए गीता-बाइबल-कुरान का महत्व है इसी प्रकार लोकतांत्रिक देश के लिए संविधान उसकी आत्मा और उसकी मजबूती का आधार स्तम्भ होता है। देश किसी की मर्जी से नहीं बल्कि संविधान के अनुसार चलता है। चिंता के जो मूल स्वर इन दिनों उभर रहे हैं उसमें एक तो यह है कि गणतंत्र जो वास्तव में गण का तन्त्र है वह गण का ही रहेगा या तंत्र का होकर रह जाएगासत्तापक्ष, विपक्ष, न्यायपालिका, कार्यपालिका के लिए यह जरूरी है कि वह इस बात को सुनिचित करें कि आने वाले समय में जो चिंताएं उभर रही हैं वे निर्मूल हों और हमारे गणतंत्र में गण ही प्रमुख हो। इसलिए इनके साथ ही मीडिया की भी अहम् जिम्मेदारी है कि वह सजग रहे, उसका यह दायित्व है कि कहीं भी यदि संविधान के साथ छेड़खड़ होती है तो वह जनमत जागृत करने में अपनी भूमिका अदा करे। ताकि 'गोदी मीडिया' जैसे आरोपों से बच सके। _ विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की मूल आत्मा है और इसमें सहमति के साथ ही असहमति को भी स्थान मिलना जरुरी है। पिछले कुछ सालों में असहमति को सत्ताधारी दल का विरोध माना जाने लगा हैं और सत्ताधारी दल अपने निर्णयों या नीतियों के प्रति असहमति का स्वर बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। विभिन्न विचारों और उनके समन्वय का गुलदस्ता ही लोकतंत्र को पल्लवित व सुगंधित करता हैमॉब लिंचिंग की बढ़ती घटनाएं देश के लिए चिंतनीय हैं और जो हमसे सहमत नहीं है उनसे द्वेष रखना लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है, यह वास्तव में अंतत हमारे लोकतंत्र को ही कमजोर करेगी, इसलिए जरूरी है कि असहमति को भी स्थान मिले। पक्ष-विपक्ष के विचारों के बाद ऐसा रास्ता खोजा जाए जो हमारे लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करे। इस समय लोगों के मन में जो सवाल उठ रहे हैं ऐसे में गणतंत्र दिवस की वर्षगांठ के तीन दिन पूर्व भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा कहा गया यह कथन 'हमेशा याद रखना चाहिए कि सहमति और असहमति लोकतंत्र का मल तत्व है।' __वहीं दूसरी तरफ माना जा रहा है कि कहीं न कहीं लोगों के मन में सवाल उठ रहे हैं और देश में जगह-जगह आंदोलन हो रहे हैं, यहां तक कि महिलाएं और बच्चे भी धरने पर बैठे हुए हैं, शैक्षणिक संस्थाओं के छात्र आंदोलित हैं और अपनी समस्याओं को लेकर सड़कों पर हैं। हिंसा के लिए हमारे लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं है और आंदोलन शांतिपूर्ण होना चाहिए। हिंसा फैलाने वाले तत्वों के साथ कड़ाई से पेश आना जरुरी है लेकिन यह भी देखना उतना ही आवश्यक है कि केवल उन्हीं लोगों की धरपकड़ की जाए जो हिंसा फैला रहे हों। देखने में यह आया है कि शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर भी पुलिसिया अत्याचार अपनी सीमाओं को लांघ जाता है। उपद्रव कर रहे लोगों से सख्ती से पेश आना चाहिए, लेकिन यूनिवर्सिटी परिसर में पुस्तकालयों या अपने कमरे में जो छात्र हों उनकी पुलिस द्वारा पिटाई जायज नहीं कही जा सकती और सभी लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वालों को इसका विरोध करना चाहिए। यह कहना भी लोकतांत्रिक भाषा नहीं हो सकती कि हम बदला लेंगे या ऐसा सबक सिखायेंगे कि तीन पीढियां याद रखें। केवल अपराधी तत्वों पर नकेल रखना सत्ताधारी दल और प्रशासन की जिम्मेदारी है। लेकिन किसी प्रदेश की सत्ता के शीर्ष पर बैठा राजनेता यदि इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करता है या ऐसे विचार रखता है तो उसे यह भी याद रखना चाहिए कि यह लोकतांत्रिक नहीं हैजो सत्ता में है उसकी अधिक जिम्मेदारी है कि वह लोकतंत्र को मजबूत करे और असहमति के स्वरों को सुने। यदि अनसुनी की जाएगी तो आंदोलन कम होने की जगह बढ़ेंगे। हमारे देश को आजादी महात्मा गांधी के नेतृत्व में ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ छेड़े गए असहयोग और शांतिपूर्ण आंदोलन से ही मिली। शांतिपूर्ण आंदोलन की ताकत हम देख चुके हैं, महात्मा गांधी ने अपना एक आंदोलन उस समय वापस ले लिया था जब एक पुलिस चौकी में आंदोलनकारियों ने आग लगा दी थी। इसलिए जो लोग आंदोलन करते हैं अका भी यह दायित्व है कि उनका आंदोलन कतई हिंसक न झे और ऐसे लोगों को वह चिन्हित करें जो अशांति या हिंसा फैलाने के उद्देश्य से ही आंदोलन में आते हैं। जिन संस्थाओं को संविधान ने स्वायत्ता प्रदान की है उसमें बैठे प्रमुखों की भी यह जिम्मेदारी है कि वे अपनी रीढ़ की हड्डी को मजबूत रखें और इस बात का वे स्वयं पुरजोर प्रयास करें कि जो स्वायत्ता मिली है उससे वे समझौता नहीं करेंगे, भले ही इसके लिए किसी का भी कोपभाजन ही क्यों न बनना पड़े। इन दिनों केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच भी तनाव बढ़ रा है तथा विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों के मन में यह बात घर कर रही है कि केन्द्र सरकार उनकी उपेक्षा कर रही है और जायज मांगों की ओर ध्यान नहीं दे रही, यहां तक कि आर्थिक मदद देने में भी भेदभाव बरता जा रहा है। हमारे देश में संघीय संविधान है और केन्द्र तथा राज्य की भूमिकाएं, सीमाएं एवं मर्यादाएं भलीभांति रेखांकित हैं इसलिए किसी को भी इसे लांघने की कोशिश नहीं करना चाहिए। केन्द्र व राज्यों के बीच समन्वय और सहयोग ही लोकतंत्र को मजबूत बनाता है इसलिए एक-दूसरे के प्रति आदरभाव और आपसी समझ होना जरुरी है। इस बात के पूरे प्रयास होने चाहिए कि किसी प्रकार का परस्पर अविशवास पैदा न हो, क्योंकि विशवास ही लोकतांत्रिक परम्पराओं और मूल्यों को पुष्ट करेगा। संविधान के धर्मनिरपेक्ष मंचे से किसी प्रकार की छेड़छाड़ न हो जितनी जिम्मेदारी सत्तापक्ष की है उतनी ही विपक्ष की भी है कि वह इससे किसी को भटकने न दे। दोनों के साथ ही जनता को भी चौकन्ना रहने की जरुरत है ताकि यदि कोई उसे आघात पहुंचाता है तो वह शांतिपूर्ण आंदोलन के जरिए सही रास्ते पर लाने को मजबूर करे। नौकरशाहों का राजनीतिकरण और राजनेताओं की भाषा का गिरता स्तर तथा जनमानस में उनकी घटती विशवसनीयता एवं साख का जो संकट पैदा हो रहा है उसके चलते भी अंतत हमारा गणतंत्रही कमजोर होगा। सेना के विभिन्न अंगों के जिम्मेदार लोगों को जहां तक संभव हो राजनीतिक बयानबाजी से बचना चाहिएआज सामाजिक ताने-बाने के टूटने का जो खतरा मंडराने लगा है वह कोई अच्छ सकेत नहीं हैसामाजिक सद्भाव, अनेकता में एकता और सभी धर्मों के साथ समभाव और सम्मान लोकतंत्र की बुनियाद है। यह देश अ सभी का है जो कि देश में रहते हैं किसी एक का नहीं। इसलिए तेरा या मेरा नहीं यह गणतंत्र हमारा है इस भावना को पूरे दिलों-दिमाग से हमें अंगीकार करना चाहिए।
गणतंत्र दिवस के अवसर पर सभी देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई इस शुभेच्छा के साथ कि हम संविधान की रक्षा एवं गणतंत्र की मजबूती के लिए पूरी तरह मन, वचन व कर्म से प्रतिबद्ध रहेंगे।