भगवान राम मिथिला से महाराज जनकजी द्वारा आयोजित धनुष यज्ञ में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर मॉ जानकी को ब्याह कर अवध आये । अवध जो पहले से ही स्वर्ग से ज्यादा सुन्दर था किन्तु लक्ष्मी स्वरुपा मॉ जानकी के आमन के बाद और आकर्षक एवं ऐश्वर्यशाली हो गया तुलसीदास जी के शब्दों में-- कहिन लाइ कछु नगर विभूती। जनु एतनिय विरंचि करतूती ।अर्थात नगर का ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता ऐसा जान पड़ता है मानो ब्रह्माजी की कारीगरी बस इतनी ही है। ऐसे सुखद और सरस वातावरण में अयोध्यावासियों एवं महाराजा दशरथजी के मन में श्रीराम को राज पद देने का संकल्प आया। यथा तलसीदासजी के शब्दों में-- सबके उर अभिलाष अस कहहि मनाइ महेस। आप अछत जुवराज पद रामहि देऊ नरेशु ।। __ अर्थात सबके हृदय में ऐसी अभिलाषा है और सब महादेवजी को प्रार्थना करके कहते हैं कि राजा -जी श्रीरामचन्द्रजी को युवराज पद दे दें। इन्हीं सब संकल्पों एवं अभिलाषाओं तथा मनौतियों के मध्य महाराज दशरथ ने भी विचार किया कि राम सबके प्रिय हैं, ज्येष्ठ हैं, सक्षम हैं अतः उनका राज्याभिषेक कर दिया जावे। इसे रामचरित मानस में तुलसीदासजी ने लिखा हैयह विचारु कर आनि नृप सुदिन सुअवसरु पाई। प्रेम पुलक तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाई।। अर्थात महाराज दशरथ ने हृदय में यह विचार लाकर / श्रीराम को युवराज पद देने का निश्चय कर/ शुभ दिन और सुंदर समय पाकर, प्रेम से पुलकित शरीर हो आनंद मग्न मन से गुरु वशिष्ठजी को जाकर सुनाया। गुरु वशिष्ठजी ने राजा की अभिलाषा जानकर तत्क्षण उचित मुहूर्त बताकर राज्याभिषेक की तैयारी करने की सहमति देते हुए तैयारी करने को कहा। महाराज महल में आये सभी रानियों को शुभ समाचार से अवगत कर यथोचित तैयारी करने को कहा। महाराज ने लोकतंत्र प्रणाली एवं मर्यादाओं के अनुरुप निर्णय में सभी को भागीदार बनाया, यथा-- जौं पंचहि मत जागहि नीका। __ करहु हरषि हिय रामहि टीका।। अर्थात यदि पंचों को /आप सबको/ यह मत अच्छा लगे तो हृदय में हर्षित होकर श्रीरामचन्द्र का राजतिलक कीजियेयहां उल्लेखनीय है कि जब महाराज को श्री रामचन्द्र को राजतिलक का मन में विचार आया एवं तदनरुप सभी की सहमति से निर्णय लिया गया. तब संयोग से महारानी कैकेयी पुत्र श्री भरतजी अयोध्या में न होकर अपनी ननिहाल में भाई शत्रुघ्न के साथ मेहमानी कर रहे थे। इसी बात को अन्यथा लेकर महारानी कैकेयी ने राजतिलक के सुखद एवं शुभ समाचार को तत्काल शोक समाचार में बदलने का उपक्रम या षडयंत्र रच डाला। राजमहल में अनायास विद्रोह की ज्वाला फूट पड़ी और हर्ष की जगह वातावरण करुणामय बन गया महाराजा दशरथ ने देवासुर संग्राम में महारानी कैकेयी को उनकी वीरोचित भूमिका के लिए प्रसन्न होकर कोई भी वरदान मांगने को कहा थामहारानी कैकेयी ने राजतिलक के शुभ एवं पावन प्रसंग को वरदान मांगने के लिए चुनाअन्य महलों में एवं शेष अयोध्या में राजतिलक की भव्य तैयरियां चल रही थींमाता कौशल्या, सुमित्राजी अपने-अपने ढंग से अनुष्ठानों में व्यस्त थीं, प्रजा एवं मंत्रीगण भी इस अवसर को स्मरणीय बनाने में लग गये।
करुणा के मध्य श्रीराम का कर्तव्यबोध- एक प्रसंग